सेवा ध्यान है
एक दिन कुछ यूँ हुआ कि मैं सुबह से लेकर रात तक अस्तित्व के कामों में जुटा हुआ था । कुछ लेख सम्पादित किये, कुछ ऑडियो लेक्चर्स तैयार किये, आगामी माह में होने वाले ध्यान शिविर की तैयारियों का जायज़ा लिया, दल के सदस्यों से बातचीत की । इसी तरह पूरा दिन गुज़रा । रात होते-होते मुझे एक अद्भुत अनुभूति हुई । मुझे यह लगा कि दिनभर मन कहीं नदारद था । मानो मन था ही नहीं । पूरे दिन मैं एक विचारशून्यता में जी रहा था । जब इसका कारण खोजा तो एक अनुपम सत्य उद्घटित हुआ, एक ऐसा सत्य जो सुना बहुत था लेकिन उसका गूढ़ अर्थ उसी दिन समझ आया–कि सेवा ध्यान का एक रूप है । जब हम सेवा में तल्लीन होते हैं, डूबे हुए होते हैं तो दरअसल हम ध्यान में होते हैं ।

सेवा है क्या ? सेवा है स्वयं को अर्पित करना दूसरों के हित के लिए । दूसरे के भले के लिए जब आप कोई कार्य कर रहे होते हैं तो आप सेवारत होते हैं, आप सेवक होते हैं । सेवा में स्वयं का भाव, अहम् का भाव नहीं रह सकता क्योंकि सेवा में कोई दूसरा आपके ध्यान का केंद्र होता है । जब कभी आप सेवारत होते हैं तो आप अपने बारे में नहीं सोच रहे होते, आप अन्य के बारे में सोच रहे होते हैं । जो कुछ भी आप किसी दूसरे को ख़ुश करने के लिए करते हैं वही सेवा होती है । ज़ाहिर सी बात है जब आपका केंद्र कोई और बन जाता है तो मन धीरे-धीरे विलीन होने लगता है । फिर मन को जगह ही नहीं मिलती, मन को पोषण ही नहीं मिलता । इसीलिए सेवा ध्यान बन जाती है ।

ध्यान का अर्थ है मन का न होना । जब कभी हम मन के पार होते हैं तो हम ध्यान में होते है । ध्यान हमेशा कोई विधि ही नहीं होती । कोई भी ऐसी चीज़, कोई ऐसी युक्ति, कोई परिस्थिति, कोई सम्बन्ध, कोई भी कार्य जो आपको मन के पार ले जाये वही ध्यान बन जाता है । सेवा भी मन के पार ले जाती है, इसीलिए वह ध्यान का एक रूप बन जाती है ।

सेवा शब्द बड़ा गहरा है । बहुत सारे धर्म हैं जिन्होंने सेवा को बड़ा ऊँचा स्थान दिया है । हिन्दुओं में दान की परम्परा बहुत पुरानी है और दान भी सेवा का ही एक रूप है । इस्लाम में मुस्लिमों को जो पाँच फ़र्ज़ बताए गये हैं उनमें से ज़कात भी एक फ़र्ज़ है । ज़कात का अर्थ है अपनी कमाई का एक हिस्सा किसी ज़रूरतमंद को देना । वैसे ही ईसाइयत में मिशनरी कार्य और सिक्खों में लंगर लगाने की परम्परा सेवा के ही विविध रूप हैं ।

इस प्रकार की सेवा वास्तव में एक परिवार की भावना उत्पन्न करती है । हम अपने सीमित दायरे से बाहर निकल कर दूसरों तक पहुँचते हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की भावना यही है कि समस्त जगत हमारा कुटुम्ब है । और यदि समस्त जगत हमारा परिवार है तो फिर यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम सभी की सुधि लें । तो समुदायिकता की भावना सेवा में निहित होती है । हम दूसरों के लिए जो कुछ कर सकते हैं हम करना चाहते हैं । तो इस प्रकार एक सामूहिक आध्यात्मिकता पैदा होती है सेवा भाव से । यह एक पहलू है सेवा का ।

लेकिन एक और बात है जो बड़ी गहरी है । सेवा शब्द दान, ज़कात, या किसी भी ऐसे शब्द से थोड़ा अलग है, थोड़ा गहरा है । ग़ौर करें : जब आप किसी को दान देते हैं किसी भी प्रकार का तो आपके अंदर एक भाव होता है कि आप उनसे बड़े हैं, ऊँचे हैं, महान हैं क्योंकि आपने दूसरे की मदद की है । और इस महानता के भाव के कारण ही दया का भाव पैदा होता है । लेकिन दया एक प्रकार की रूग्णता है । जब भी कभी आप किसी पर दया करते हैं तो आप उनको अपने आप से नीचा मानते हैं । और जब कभी ये भाव होता है कि सामने वाला निचले दर्जे का है और हम एक एहसान कर रहे हैं उसके ऊपर, तब क्या होता है ? इस भाव से अहम् तुष्ट होता है, अहम को पोषण मिलता है । कोई भी चीज़ जिससे हम यह महसूस करते हैं कि हम महान हैं उससे हमारा मन और प्रबल होता जाता है । इसके विपरीत, सेवा शब्द बहुत सुन्दर है । सेवा का अर्थ है कि देने वाला नीचे है, देने वाला एहसानमंद है । लेने वाला नहीं, देने वाला धन्यावादी है कि अगले ने उसे इतना अवसर दिया कि वह उसकी दी हुई चीज़ को स्वीकार कर रहा है । सेवा भाव इसीलिए अहम् से मुक्त करता है । एक ज़ेन कहानी है : एक व्यक्ति किसी ज़ेन मास्टर को कुछ दान में देता है और यह अपेक्षा करता है कि मास्टर उसे धन्यवाद देगा । मास्टर उस दानी के मन को पढ़ लेता है, तो उसे कहता है, “देने वाले को धन्यावादी होना चाहिए लेने वाले को नहीं क्योंकि लेने वाले ने एक अवसर पैदा किया है दूसरे के लिए कि थोड़ी देर के लिए वह अपने मन से मुक्त हो सके ।” तो सेवा, यदि हम सही अर्थों में समझें, हमें तुरंत मुक्त कर देती है अहम् से ।

लेकिन होता बिल्कुल उल्टा है : जो जितना सेवारत होता जाता है उसका अहम् उतना ही तुष्ट होता जाता है । आमतौर पर हमने यह देखा है कि जो लोग थोड़े दानी प्रवृत्ति के होते हैं उनके अन्दर ये भाव भी बड़ा प्रबल होता है कि वे यह पूरी दुनिया को बतायें, ढिंढोरा पीटें, पब्लिसिटी करें कि उन्होंने कितना दान किया है । कभी किसी धार्मिक स्थल पर जायें तो वहाँ दानदाताओं की सूचि लगी होना बड़ी आम बात होती है । आपने भी ज़रूर ग़ौर किया होगा । और हर किसी की यह इच्छा होती है कि सूचि में वह सबसे ऊपर स्थान पर हो । सबसे ज़्यादा दान दिया हो उसने । प्रेमचंद का एक उपन्यास है गोदान । उसमें एक घटना है : कुछ लोगों को एक सामाजिक संस्था को खोलने के लिए धन की आवश्यकता होती है । वे एक ज़मींदार के पास जाते हैं दान लेने के लिए । अब ज़मींदार को यूँ तो किसी सामाजिक कार्य में रूचि नहीं है । पर जब वह सूचि देखता है दानदाताओं की तो सबसे ऊपर जिसका नाम होता है वह उसका चिर प्रतिद्वंदी निकलता है । तो ज़मींदार साहिब उससे ज़्यादा पैसे दान देते हैं । ये सब अहम् के खेल हैं ।

हम हर जगह दान के नाम पर अपने आप को ही ख़ुश करते रहते हैं । यदि ऐसा कुछ आपके साथ भी हो रहा हो तो यह मानिए कि अभी आपने सेवा को समझा ही नहीं । सेवा का अर्थ है नम्र हो जाना । और जैसा कि बाइबिल कहती है कि दान ऐसा दिया जाना चाहिए कि दायें हाथ से दो तो बायें हाथ को भी पता न चले । तो ऐसे भाव से देना है कि मानो कुछ दिया ही नहीं । ऐसे बन जाना है जैसे मात्र आप एक माध्यम हो, इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं । सेवा में यह भाव ज़रूर सम्मिलित होना चाहिए कि हम एक निमित्त मात्र हैं, यंत्र हैं अस्तित्व के । हम अपने आप को अर्पित करते हैं अस्तित्व को । बिना इसके सेवा सेवा न होकर अपने आप को महान बनाने का एक ज़रिया मात्र बनकर रह जाती है ।

एक और बात समझने वाली है इस सन्दर्भ में : कुछ लोग स्वभाव से आत्मकेन्द्रित होते हैं । उनके लिये अपनी साधना ही सब कुछ होती है । उनकी पूरी उर्जा, पूरा ध्यान केवल इस बात पर लगा होता है कि वे सत्य को कैसे समझें । ऐसे लोग समाज से थोड़ा अलग होते हैं । कभी-कभी ऐसा होता है कि जब कोई सेवामार्गी ऐसे लोगों को देखता है तो निंदा से भर जाता है इनके प्रति । उसे ऐसा लगता है, “ये स्वार्थी, मतलबी लोग हैं । इन्हें दूसरों की कोई फ़िक्र ही नहीं है । ये बस अपना मज़ा, अपनी मस्ती के बारे में फ़िक्र करते हैं । और हमें देखो, हम कितने अच्छे हैं, हम दूसरों के लिए कितना कुछ कर रहे हैं ।” जब कभी यह भाव आता है तब भी अहम् ही है । हर किसी का अपना-अपना मार्ग है । कोई प्रेममार्गी है, कोई ध्यानमार्गी है, कोई ज्ञानमार्गी है, कोई भक्तिमार्गी है, कोई सेवामार्गी है । हर किसी ने अपना-अपना रास्ता चुना है । और हमें हमेशा ही अपनी प्रकृति के अनुसार अपना मार्ग चुनना चाहिए । किसी की देखा-देखी ग़लत राह नहीं पकड़नी चाहिए । ऐसा हो सकता है कि जो व्यक्ति ध्यानी है, आत्मकेंद्रित है उसके अन्दर ये अपराध-बोध पैदा हो जाये कि वह केवल अपने लिए ही जी रहा है, दूसरों के लिए नहीं । उसे ऐसा लग सकता है कि-सेवामार्गी उससे बेहतर है । ये सब मन की चालाकियाँ हैं । इनसे बचकर रहें ।

ध्यान रहे, सेवा का मेवा मुक्ति है । सेवा के बदले में कभी कुछ आशा न रखें । क्योंकि यदि आप अपनी सेवा के बदले में कुछ चाहते हैं तो फिर आपकी हालत यही होगी कि, “ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए सनम/ न इधर के रहे न उधर के रहे” । फिर आप दोनों चीज़ों से चूक जायेंगे । यदि आप श्रम दान दे रहे हैं तो आपका समय व्यर्थ होगा, यदि अर्थ दान दे रहे हैं तो पैसा व्यर्थ होगा । और बदले में कुछ नहीं मिलेगा । उल्टे आपका मन और प्रबल हो जायगा । और जब उसे प्रशंसा नहीं मिलेगी लोगों से तो फिर दुखी होगा । सेवा में सारी प्रशंसा की चाह ख़त्म हो जाये तभी सेवा शुद्ध होती है । याद रखिये, सेवा साधन है अहम् से मुक्त होने का न कि अहम् को तृप्त करने का ।